पद्य-6 | तुमुल कोलाहल कलह में भावार्थ (सारांश) – जयशंकर प्रसाद | कक्षा-12 वीं
तुमुल कोलाहल कलह में
tumul kolahal kalh me arth
तुमुल कोलाहल कलह में मैं हृदय की बात रे मन !
विकल होकर नित्य चंचल, खोजती जब नींद के पल; चेतना थक सी रही तब, मैं मलय की वात रे मन !
व्याख्या
प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के “तुमुल कोलाहल कलह में” कविता से ली गई है। यह कविता महाकाव्य कामायनी का अंश है। इसके कवि जयशंकर प्रसाद जी हैं। इन पंक्तियों में कभी कहते हैं। इस कला में, इस सारे शोरगुल में, मैं हृदय की बात हूँ मन।
जब हमारा मन चंचल होता है हमेशा अशांत और चिंतित रहता है, कुछ ना कुछ सोचता रहता है। जब उसकी चेतना थक जाती है। तब वह आराम खोजती है, उसे नींद आती है। उस समय तुम्हें मलय से चलने वाली हवा की तरह जो शांति मिलती है। मैं वही (शांति) हवा हूँ मन।tumul kolahal kalh me arth
चिर-विषाद विलीन मन की इस व्यथा के तिमिर वन की; मैं उषा सी ज्योति रेखा, कुसुम विकसित प्रात रे मन !
व्याख्या
प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के “तुमुल कोलाहल कलह में” कविता से ली गई है। यह कविता महाकाव्य कामायनी का अंश है। इसके कवि जयशंकर प्रसाद जी हैं। इन पंक्तियों में कभी कहते हैं। लंबे समय से मन मे जो दुख-दर्द है, मन की जो व्यथा है। एक अंधकार वन की तरह है। रे मन, मैं उस अंधकार रूपी कोहरे में सुबह की एक किरण, एक ज्योत रेखा की तरह हूँ। जो पूरे वन में पुष्प (फूल) को खिला देती है।tumul kolahal kalh me arth
जहाँ मरु ज्वाला धधकती, चातकी कन को तरसती; उन्हीं जीवन घाटियों की, मैं सरस बरसात रे मन!
व्याख्या
प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के “तुमुल कोलाहल कलह में” कविता से ली गई है। यह कविता महाकाव्य कामायनी का अंश है। इसके कवि जयशंकर प्रसाद जी हैं। इन पंक्तियों में कभी कहते हैं। मरूभूमि जो ज्वाला की तरह धधकती है, जहाँ चातकी पानी की एक बूंद के लिए तरसती है। उस मरूभूमि मे उन घाटियों को जीवन देने वाली, मैं सरस बरसात हूँ मन।tumul kolahal kalh me arth
पवन की प्राचीर में रुक, जला जीवन जा रहा झुक; इस झुलसते विश्व-वन की, मैं कुसुम ऋतु रात रे मन !
व्याख्या
प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के “तुमुल कोलाहल कलह में” कविता से ली गई है। यह कविता महाकाव्य कामायनी का अंश है। इसके कवि जयशंकर प्रसाद जी हैं। इन पंक्तियों में कभी कहते हैं। पवन जब ऊंची चारदीवारी के में बंद होकर रुक जाता है। जलकर, झुलस कर जब मनुष्य जीवन अपने परिस्थितियों के आगे झुक जाता है। रे मन मैं इस झूलसते विश्व में, इस निराशा रूपी वन में एक वसंत ऋतु की रात तरह हूँ। जिसमें उम्मीद में फूल खिलते हैं।
चिर निराशा नीरधर से, प्रतिच्छायित अश्रु सर में; मधुप मुखर मरंद मुकुलित, मैं सजल जलजात रे मन !
व्याख्या
प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के “तुमुल कोलाहल कलह में” कविता से ली गई है। यह कविता महाकाव्य कामायनी का अंश है। इसके कवि जयशंकर प्रसाद जी हैं। इन पंक्तियों में कभी कहते हैं। लंबे निराशा के जो घने बादल छाया हुए है। उससे जो पानी बरसते हैं, वह आंसू रूपी तालाब की तरह है। रे मन मैं उस आंसू रूपी तालाब मे कोमल कमल की सुगंधित कलियों की तरह हूँ जिस पर भौंरे मंडराते है।tumul kolahal kalh me arth
सारांश
व्याख्या
जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित कविता “तुमुल कोलाहल कलह में” महाकाव्य “कामायनी” का अंश है। इसमें जो नायक और नायिका है। वह हमारी भावनाओं और को दिखाती हैं।मनु मन को, श्रद्धा ह्रदय को और इड़ा हमारे बुद्धि को दिखाते हैं। इस कविता में श्रद्धा कहती हैं की, इस सारे शोरगुल में, मैं हृदय की बात हूँ मन। जब हम थक जाते है और हमे नींद आती है। मैं वही शांति हूँ मन। रे मन, मैं अंधकार रूपी कोहरे में सुबह की एक किरण, एक ज्योत रेखा की तरह हूँ। अर्थात आशा कि किरण की तरह हूँ। रे मन, मैं वह सरस बरसात हूँ, जिसके लिए मरुस्थल की भूमि पर चातकी पानी कि एक बूंद के लिए तरसती है। पूरा विश्व निराशा के बादल में गिरा हुआ है। मैं उस निराशा में आशा कि उस फूल की तरह हूँ जो सब के जीवन को सुगंधित करती है।
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