विवरण
Juthan saransh
आधारित पैटर्न | बिहार बोर्ड, पटना |
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कक्षा | 12 वीं |
संकाय | कला (I.A.), वाणिज्य (I.Com) & विज्ञान (I.Sc) |
विषय | हिन्दी (100 Marks) |
किताब | दिगंत भाग 2 |
प्रकार | सारांश |
अध्याय | गद्य-10 | जूठन – ओमप्रकाश वाल्मीकि |
कीमत | नि: शुल्क |
लिखने का माध्यम | हिन्दी |
उपलब्ध | NRB HINDI ऐप पर उपलब्ध |
श्रेय (साभार) | रीतिका |
सारांश
Juthan saransh
ओमप्रकाश वाल्मीकि की “आत्मकथा” “जूठन” पिछड़ी-दलित एवं निम्न जाति के लोगों के दैनीय स्थिति को दर्शाती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि चूहड़े जाति से थे। नीची जाति के होने के कारण उन्हें स्कूल में बैठने नहीं दिया जाता था। उनसे झाड़ू लगवाया गया।
हेडमास्टर (कलीराम) साहब ने शीशम के पेड़ की पत्तियों वाली झाड़ू
उनकी माता तागाओ (हिंदू-मुसलमान) के घर और मवेशियों के रहने के स्थान में साफ-सफाई का काम करती थी। घर के सभी लोग माॅं का हाथ बटाटे थे। सालों भर काम करने के बाद भी उन्हें 12 से 13 किलो ही अनाज मिलता था।
शादी ब्याह के मौके पर जब मेहमान या बराती खाना खा लेते थे, तो उनकी जूठी प्लेट को चुहरे अपने घर लेकर जाते थे, और जूठन इकट्ठा कर धुप में सूखा देते थे। भोजन न रहने पर उसी का इस्तेमाल करते थे। दिन-रात काम करने की कीमत उन्हें जूठन मिलती थी। चुहड़ो को देने के लिए खासतौर पर खुची रोटी बनाई जाती थी। जो आटे में भूसी मिलाकर बनती थी।
Juthan saransh
त्यागियो के मरे पशुओं को उठाने का काम भी चुहडे़ जाति के लोगों करते थे। मरे हुए पशुओं के खाल 20 से 25 रूपया में मुजफ्फरनगर के चमरा बाजार में बिकती थी, मजदूरी देकर मुश्किल से 10 से 15 रूपया हाथ में आते थे।
लेखक कहते हैं कि उन दिनों वे नौवीं कक्षा में थे। एक रोज ब्रह्मदेव तगा का बैल खेत से लौटते समय रास्ते में गिर कर मर गया। घर पर कोई नहीं था माॅं, छोटी बहन माया और बड़ी भाभी देवी ही थी। बाकी सब रिश्तेदारी में गए थे। मैं स्कूल में था। खाल उतारने के लिए जब कोई नहीं मिला तो थक कर माॅं ने मुझे बुलाया। Juthan saransh
यह काम अकेले नहीं हो सकता था, इसलिए चाचा सोल्हड़ जो कि महाकामचोर थे, उनके साथ में भी गया उनकी मदद के लिए। मैंने यह काम पहले कभी नहीं किया था। मेरी हालत देखकर माॅं रो परी और बड़ी भाभी ने उस रोज माॅं से कहा, “इनसे यह न कराओ ……… भूखे रह लेंगे ….….. इन्हें इस गंदगी में ना घसीटो!” भाभी के यह शब्द मुझे आज भी याद है। मैं उस गंदगी से बाहर निकल गया हूॅं। लेकिन वह जिंदगी आज भी लाखों लोग जी रहे हैं।
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